पौ फटते पहुँचे। बुआ जग गई थीं। स्नान से निवृत्त हो चुकी थीं, दिन-भर घर से बाहर न निकलती थीं।
एक साधारण जमींदार ने जगह दी थी। बाँस के घेरे में मिट्टी लगाकर दीवार बनाकर छा लिया गया था।
तीन-चार कोठरियाँ थीं, तीन-चार चारपाइयाँ और चरखे-करघे आदि। बुआ भोजन पकाती थीं। कर्मी वस्त्र-वयन आदि करते थे।
काम जितना था, जोश उससे सैकड़ों गुना अधिक। हिंदू और जमींदारी प्रथा से फँसी जनता साथ थी।
जितना अभाव था, पूर्ति उससे बहुत कम। चारों ओर पूर्ति का मंत्रोच्चार था। लोगों में भक्ति थी।
इससे बुआ का स्वास्थ्य अच्छा रहा। लोगों को एक सहारा मिला। राज लेनेवाले जमींदार को भी यह पता न हुआ कि एक औरत आई है।
किरण फूटी। प्रभाकर हाथ-पैर धोकर बैठे थे। दूसरे साथी भी बैठे थे। दरवाजा बंद था।
बुआ प्रभाकर को प्रणाम करने आईं। आंखों में भक्ति और उच्छ्वास, काम की एक रेखा। मुख पर प्राची का पहला प्रकाश। प्रभाकर देखकर खड़ा हो गया।
हाथ जोड़कर नमस्कार किया। बुआ ने भी किया। प्रभाकर ने पूछा, "कैसी रहीं?"
बुआ ने इशारे से समझाया, "अच्छी तरह।" अभी वे बँगला बोल नहीं सकतीं। थोड़ी-थोड़ी समझ लेती हैं।
यहाँ आने पर उनका मन बिलकुल बदल गया। वहाँ के प्रभाव का दबाव जाता रहा। ललित ने कहा, "थोड़ी सी चाय पिला सकती हैं?"
बुआ चूल्हा जलानेवाली थीं। चलकर जलाया। कर्मी चाय पीते हैं। सामान है। पानी उबालने लगीं। आधे घंटे में बढ़िया चाय बनाकर प्यालों में ले आईं।
तश्तरी में सुपाड़ी, लौंग, इलायची, सौंफ, जवाइन, मुखशुद्धि के लिए। लोग मुँह धो चुके थे। चाय पी, लौंग-सुपाड़ी खायी।
काम की बातचीत करने लगे, कितना कपड़ा महीने में बनकर कलकत्ता जाता है, कितना काम बढ़ाया जा सकता है, लोगों की सहानुभूति कैसी है,
अधिक संख्या में लोग व्यापार के लिए तैयार हैं या नहीं। जवाब मिला, जमींदार आए थे, दरवाजे पर बैठे थे, कहते थे, सरकारी लोग खलमंडल करते हैं; कारोबार चलने नहीं देना चाहते; डरवाते हैं, जड़-समेत उखाड़कर फेंक देंगे; सज़ा कर देंगे; बदमाशी के अड्डे हैं, कहते हैं।